आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
सुनसान के सहचर
4
पीली मक्खियाँ
आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेव के पेड़ों पर भिनभिनाती फिरने वाली पीली मक्खियाँ हम लोगों पर टूट पड़ीं, बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूटती थीं। हाथों से, कपड़ों से उन्हें हटाया भी, भागे भी, पर उन्होंने देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते-पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब उनसे पीछा छूटा। उनके जहरीले डंक जहाँ लगे थे, सूजन आ गई, दर्द भी होता रहा।
सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी, क्या इनको इसमें कुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है। यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें यहाँ रहना चाहिए। हमारे लिए यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा कि यह हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करते हैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है, उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शन करने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया हो।
यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी। वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था। उन्हें तो पेड़ों पर रहकर अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए थी। सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थ थी, क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करतीं क्या? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनियाँ है, सभी लोग उसका मिल-जुलकर उपयोग करें, तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया-शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ा भी उठा लेने-देने की सहिष्णुता रखतीं। उनने अनुदारता करके हमें काटा, सताया, अपने डंक खोये, कोई-कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयीं, घायल भी हुईं और मर भी गईं। वे क्रोध और गर्व न दिखातीं, तो क्यों उन्हें व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार लिप्सा में मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी, यह “पीली मक्खियाँ” सचमुच ही ठीक शब्द था।
पर इन बेचारी मक्खियों को ही क्यों कोसा जाये? उन्हीं को मूर्ख क्यों कहा जाये? जबकि आज हम मनुष्य भी इसी रास्ते पर चल रहे। हैं। इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री परमात्मा ने पैदा की है, वह उसके सभी पुत्रों के लिए मिलकर-बाँटकर खाने और लाभ उठाने के लिए है, पर हममें से हर कोई जितना हड़प सके, उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। यह भी नहीं सोचा जाता कि शरीर की, कुटुम्ब की आवश्यकता थोड़ी ही है, उतने तक सीमित रहें, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमाकर दूसरों को क्यों कठिनाई में डालें और क्यों मालिकी का व्यर्थ बोझ सिर पर लायें, जबकि उस मालिकी को देर तक अपने कब्जे में रख नहीं सकते।
पीली मक्खियों की तरह मनुष्य भी अधिकार लिप्सा के स्वार्थ और संग्रह में अन्धा हो रहा है। मिल-बाँटकर खाने की नीति उसकी समझ में ही नहीं आती, जो कोई उसे अपने स्वार्थ में बाधक होते दीखता है, उसी पर आँखें दिखाता है, अपनी शक्ति प्रदर्शित करता है और पीली मक्खियों की तरह टूट पड़ता है, इससे उनके इस व्यवहार से कितना कष्ट होता है इसकी चिन्ता किसे है?
पीली मक्खियाँ नन्हें-नन्हें डंक मारकर आधा मील पीछा करके वापिस लौट गईं, पर मनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता को जब सोचता हूँ तो बेचारी पीली मक्खियों को ही बुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती है।
|
- हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
- हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
- चाँदी के पहाड़
- पीली मक्खियाँ
- ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
- आलू का भालू
- रोते पहाड़
- लदी हुई बकरी
- प्रकृति के रुद्राभिषेक
- मील का पत्थर
- अपने और पराये
- स्वल्प से सन्तोष
- गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
- सीधे और टेढ़े पेड़
- पत्तीदार साग
- बादलों तक जा पहुँचे
- जंगली सेव
- सँभल कर चलने वाले खच्चर
- गोमुख के दर्शन
- तपोवन का मुख्य दर्शन
- सुनसान की झोपड़ी
- सुनसान के सहचर
- विश्व-समाज की सदस्यता
- लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
- हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
- हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया